चित्र श्रेय: डीएनए इंडिया
निर्वाचन का बिगुल बजा, मच रहा था हाहाकार, गली-गली हर घर-घर में, मने उलझन का त्यौहार।
“किसे चुनें, किसे सत्ता दें?” हर ओर था यही विवाद, हर भेंट, हर चर्चा का, बस चुनाव ही था संवाद।
ऐसे में एक धूर्त नोट ने, लगाई एक वोट से स्पर्धा, “जग में किसकी माँग अधिक?
किसकी है अधिक महत्ता?”
शास्त्रार्थ का सेज सजा, न्यायाधीश प्रतिष्ठित आये, श्रोताओं में था कौतुहल, “विवाद क्या रंग दिखलाये?”
नोट ने बड़ी तैयारी की, व्यवसायी सभी बुलाये, नोट के पक्ष से तर्क सुनाने संग वो अनुभव लाये।
वोट ने भी व्यवस्था में कोई चेष्टा न छोड़ी, नेताओं के भाषण में अपनी उपलब्धियाँ जोड़ीं।
मोर्चे निकाले पक्षों ने विपक्षों को दुत्कारा, प्रश्न एक ही करते थे सब, “कौन है किसको प्यारा?”
तभी मंच पर जा नोट ने गुहार ज़ोर की लगाई, “कौन यहाँ समझे मुझे अपना, किसका मैं बड़ा भाई?
जिसको भी यहाँ प्रेम हैं मुझसे, जो मुझे अपना समझे, नाम मेरा एक पर्चे में वो अब चुपके से भर दे।
याद रखें अब सभी कि मैं ही हूँ पालनकर्ता, मैं ही पोषण करता हूँ और मैं ही हूँ दुःख हरता।
दुनिया मुट्ठी में है तेरे जब तक मैं तेरे संग हूँ, जब भी चाहूँ सपने तेरे रंगों से मैं भर दूँ।”
बारी आई वोट की फिर, वो नम्र भाव से बोला, “जानता हूँ, सुन नोट की बातें सबका ह्रदय है डोला।
जानता हूँ कि नोट से ही चलती है दुनिया सारी, नोट नहीं तो फूल ही क्या मुरझा जाती है क्यारी।
किन्तु तुम न भूलो कि नोटों की भी सीमा है, असली बल देता है वही जो मत-प्रतिनिधि होता है।
माना न दे सकता मैं तुमको भोजन और पानी, पर राय को तेरे मैं ही दे सकता वाणी।
वोट तराशते हैं देशों के आने वाले कल को, करते हम हीं हैं निश्चित कि कैसी उनकी शकल हो।
जो दोगे वोट तुम अपना प्रगतिशील किसी मन को, उन्नत होगा देश-समाज फिर जेब में धन ही धन हो।
मूल्य मेरा अब समझो, जो मैं न तो हूँ तो क्या है, मुझसे ही जीवन में तुमको मनचाहा मिलता है।
मुझसे ही तो व्यक्त है होती चाह तुम्हारी जग में, मैं न हूँ तो तेरे अंदर घुट जायें वो रग में।
घुट जाये तू भी उनके संग, चुन न सके जो सही है, मेरा मोल जो समझ सके परिवर्तन लाते वही हैं।”
सुनकर वोट की बातें जैसे क्रान्ति आई भवन में, जैसे छोड़ गया सेना को बिन नेता कोई रण में।
नोट को भी एहसास हुआ कि उसकी सत्ता डोली, हार तो उसकी निश्चित है जैसे ही जनता बोली।
चुपके से फिर जीतने की नयी युक्ति उसने लगाई, नोटों की थैलियाँ भर-भर लोगों में बँटवायीं।
दे सुविधा का लालच सबको अपनी ओर था खींचा, धन-लोभ में समर्पण कर तब विवेक भी आखें मींचा।
भेड़ों जैसी चाल में चल दी जनता महत्ता चुनने, नोट को दे कर मूल्य अधिक उसे दे दी सत्ता बुनने।
सत्ता बनी जब माया की तब स्वार्थ ने सबको घेरा, हर ओर लग गया निरंकुश अर्थ-वाद का फेरा।
कठोर हुआ हर ह्रदय और थी तानाशाही जग में, हुआ अधीन हर व्यक्ति और अब बेड़ियाँ थी पग-पग में।
बल एकत्रित हुआ कुछ कर में और सभ्यता डोली, बँटता-टूटता समाज, खेलता था खून से होली।
मोह की पट्टी बाँध धनी अब चूस रहे थे धन को, निर्धनता के अथाह गर्त में भेजते थे हर जन को।
विवेक जगा तब जनता का विरोध का किया इरादा, पर वाणी अब सुने न कोई न ही नर, न मादा।
देख असहाय स्थिति को अपनी निर्धन जनता रोई, कैसी घड़ी है आई कि अब मदद करे न कोई।
मदद करे न कोई अब मैं किसकी आस लगाऊँ? तड़पाती मुझको जो हर क्षण प्यास वो कैसे बुझाऊँ?
“मदद जो की तुमने न अपनी जब वक्त के रहते, तब खेतों के लुट जाने पर अब क्यों आंसू बहते?
क्यूँ विवेक को मारा जब कल अपने हाथों था? क्यूँ नहीं वोट को मूल्य दिया जब बल अपने हाथों था?
अब तो जाग कि कल फिर से है वोट तुझे ही करना, ठान ले तू इस बार कि तुझको धन हाथों न मारना।
वोट के बल को जान ले तू कि यही है बल निर्बल का, यही व्यवस्था बदल सके बने दिशा तेरे कल का।
धन तो बस एक साधन है जो मौलिक तुझे दिलाये, पर स्वतंत्र धरा पर तुझको वोट की पग रखवाए।
उठ रसातल से तू अपने वोट का मोल समझ ले, सही-गलत की परख कर फिर तू स्वतंत्र-अभिव्यक्ति चख ले॥”
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