कल्पना करो, कुछ दिनों में ये बंजर हो जायेंगे। ये हवा के संग लहलहाते पत्ते, अतीत में खो जायेंगे॥
जब बारिश की बूंदों में ये पत्ते विलीन होंगे। क्या अश्रु में लिप्त तब ये कुलीन होंगे?
विरह की ज्वाला में क्या ये पेड़ भी स्वतः जलेंगे? या नवजीवन की प्रतीक्षा में यूँही अटल रहेंगे?
क्या हवा के थपेड़ों में झुक कर, टूट मरेंगे? या चिड़ियों के घोंसलों का फिर ये आशियाँ बनेंगे?
शायद, यूँहीं, सभ्यताओं का अंत होता है। या शायद,आरम्भ ही इस अंत के परांत होता है॥
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