उस रात बादलों के घेरे में यूँही अकेले चलते चलते। आया एक Tissue Paper कहीं से अचानक उड़ते उड़ते॥
कुछ अधूरे शब्द काली स्याही से लिखे हुए। धूलधूसरित कागज़ वो किनारे ज़रा फटे हुए॥
दिखता ना था कोई उस सूनसान राह पर। फ़ेंका था किसी ने इस tissue को जहां पर॥
जेब में डाल कर वो tissue घर की ओर मैं बढ़ी। कुछ दूर चौराहे पर एक टूटी कलम भी थी पड़ी॥
असमंजस में था मेरा मन क्या हुआ इन दोनों संग। किसने ऐसे बर्ताव किया किसने बिखेरा ये काला रंग॥
पढने की जो कोशिश की उन टूटे अक्षरों को। जोड़ ना सकी मैं पानी से धुली लकीरों को॥
सहसा टूटी निब कलम की चुभी मेरे हाथ में। ध्यान कलम पर दिया तो देखा जिस्म भी टूटा था साथ में॥
देख कर लगता था उस tissue-कलम को एक साथ। रात की कालिख में किसी ने मिटा दी थी बनती बात॥
गुस्से में किसी ने उन्हें क्यों ऐसे तोड़ा था। इस घटना ने मुझे अन्दर तक झंकझोड़ा था॥
थाने तक जाऊं या फिर पुलिस को बुलाऊँ मैं। किस तरह से अब इस घटना की जांच कराऊँ मैं॥
निर्णय किया फिर मैंने पुलिस के पास जाने का। पर कोई भी अधिकारी मिला ना मुझे वहाँ के थाने का॥
घंटो तक मैंने वहाँ पर उनके आने की प्रतीक्षा की। मुझसे मिलकर फिर उन्होंने ने हर बात की समीक्षा की॥
उन्होंने मुझसे कहा जांच का आश्वासन देकर। ‘जाओ और आराम से बैठो तुम अब अपने घर जाकर॥
घटना ये तुच्छ सी है कोई बात बड़ी नहीं। यहाँ तो होता आया है सदियों से ऐसा ही‘॥
’tissue-कलम की दशा के पीछे छुपा ये कैसा रहस्य। क्या दोषी को ढूंढना नहीं है पुलिस का कर्त्तव्य?’॥
पुलिस की रूचि शून्य जान मुझे बेहद दुःख हुआ। उनकी बातें सुनते सुनते मेरा मन अति क्षुब्ध हुआ॥
ठान ली मैंने फिर स्वयं मदद करने की। अपराधी को ढूंढ कर ये गुत्थी सुलझाने की॥
अगली ही सुबह गयी मैं पत्रकारों क कार्यालय में। मदद मांगी उनसे मैंने इस घटना के विषय में॥
कहानी को रोचक जान सहायता का वादा कर के। उन्होंने फिर हाथ बढाया अपने कलमों को नीचे रख के॥
रूचि दिखाई उन लोगों ने कलम और tissue से मिलने की। ‘इस रहस्य को जानने का तरीका है यही सही’॥
परिक्षण हुआ tissue-कलम का सिलसिले चले सवालों के। प्रकाशित हुआ विस्तार से फिर अगली सुबह अखबारों में॥
केन्द्रित कर पुलिस का व्यवहार कथा लिखी गयी थी सारी। पत्रकारों के गढ़े विचारों में गौण हो गयी असल कहानी॥
चर्चे बढे विवाद बढे होने लगे संवाद बड़े। tissues ने निकाले मोर्चे कलमों ने किये सवाल खड़े॥
पत्रकारों की प्रसिद्धि बढ़ी पुलिस के विरुद्ध अनशन हुए। दोषी को ढूंढ लाने के प्रयास तब भी नहीं हुए॥
भटका ध्यान लोगों का देख न्यायालय के मैंने ठोके द्वार। वकीलों से प्रार्थना की ‘दोषी का तुम करो संहार’॥
‘गलत जगह तुम आई हो ये काम हमारा नहीं। पुलिस के पास वापिस जाओ दोषी ढूंढेंगे लोग वही’॥
‘पुलिस ने कोई मदद नहीं की घोषित कर दी घटना तुच्छ। मूल्य क्या किसी जीवन का इस दुनिया में यही, सचमुच?’
‘कर नहीं सकते हम कुछ भी प्रश्न हमसे करो न तुम। सरकार से जाके मदद मांगो कर सकती है अब वही कुछ’॥
निवेदन पत्र हाथ में लेकर अगले दिन गई सरकार के पास। अचानक विपक्षी नेताओं को लगी ये बात बड़ी ही ख़ास॥
मुद्दे का आकार बढा अब केंद्र तक गयी ये बात। पत्रकारों की कतार लग गयी चाहे दिन हो चाहे रात॥
नेताओं की कुर्सी हिल गयी टुकड़ों में अब बंटा समाज। न्याय तो अब भी दूर था कोसों पाना था सबको बस ताज॥
दिलचस्पी तो सभी को थी पर ढूंढता था ना दोषी कोई। स्वार्थ में अपने मद थे सब भूल गए tissue-कलम को ही॥
सरकार बदली, विचार बदले नए मुद्दों के आकार बदले। पुरानो को सब भूल गए पर व्यवस्था के व्यवहार ना बदले॥
अर्थहीन व्यवस्था जान कर अपने रास्ते चल दी मैं भी। जेब में डाला tissue-कलम को उनकी अधूरी कहानी को भी॥
भूल जाऊं मैं भी शायद ये कहानी चलते चलते। धुंधला जाए मेरे मन से भी
वो tissue, जो आया उड़ते उड़ते,
वो कलम, जो कोई फ़ेंक गया था
यूँही राह में लिखते लिखते,
उस रात यूँही चलते चलते॥
(समर्पित है उन सभी भूली हुई कहानियों को, सभी कागज़ के टुकडों और कलमों को, जिन्हें हम भूल के आगे बढ़ते आये हैं)
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