Graphic courtesy: The Times of India
एक रोज़ मुझे एक चिट्टी आयी,
‘सालों से तूने, न शक्ल दिखाई,
आकर मिलो इस दफ्तर से तुम,
साथ में लाना चंदन कुमकुम।’
पहचान पत्र ले जो मैं पहुंची,
अफसर ने देखा, ली एक हिचकी,
कहा, ‘नाम तेरा पसंद न आया
आज से तू कहलायी माया।’
मैंने फिर आपत्ति जताई,
‘ये कौन सा नियम, मेरे भाई?’
‘नियम? ये कौन सी है चिड़िया?
भावना के बल चले है दुनिया।’
‘भावना आपकी पर जीवन मेरा,
नाम बदलना कठिन है फेरा।
बदलना होगा हर दफ्तर में,
घिसेंगे जूते इस चक्कर में।’
‘नाम तो तेरा माया ही है,
युगों से नारी की छाया यही है।
मान ले अब तू बात ये मेरी
तभी संस्कृति से पुनः जुड़ेगी।’
‘संस्कृति और युगों की बातें करते,
पर मेरी ना बात समझते।
नाम से क्या इंसान बदलता?
आवरण से क्या पहचान बदलता?’
‘पहचान तो तेरी वही है, लड़की!
जो मैंने इस पर्ची में लिखी।
और आवरण से याद है आया,
पहन वो जिससे दिखे न काया।’
‘ये क्या बात हुई, अफसर जी,
मुझे स्वतंत्रता है जीने की।
निर्णय कैसे किया आपने?
नाम आवरण बदले हैं झट में।’
‘इस दफ्तर का अधिकारी मैं,
जानूँ क्या है तेरे हित में।
तेरे कल को मिटा के अब मैं,
हटा रहा हूँ कालिख जग से।
माया बन जब परिचय देगी,
परंपरा की तू प्रति बनेगी।
सोच वो कैसा जीवन होगा,
जब सीता सा स्थान मिलेगा।’
‘वो जीवन जाने कैसा हो,
आज जो मैं हूँ वो तब न हो।
कहानी गूंथ कर के रोज़ की,
बनाई है अपनी मैंने यह छवि।
मिटा जो दोगे मेरे कल को,
जुड़ेगा कैसे मेरा परसों?
बात मेरी तुम अब ये समझो,
नाम छोड़, यह दृष्टि बदलो।
कहो मुझे सीता या माया,
नाम वही जिसे अपना पाया।
नाम में न तो कल रखा है,
न संस्कृति का पर्चम रखा है।
मुझे जो उन्नत करना तुमको,
तो उस राह का मुख तुम धर लो।
जगत में नाम तभी बनता है,
जब विकास यौवन चढ़ता है।’
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