रेल गाड़ी के डिब्बों में अब नव संवाद कहाँ खिलते हैं, कभी जो आप से बात हुई तो जाना मित्र कहाँ मिलते हैं।
शीशे पर उभरे चित्र जब आप ही आप से बोल पड़ते हैं, अंतः के बेसुध पड़े कोने धीमे-धीमे रस भरते हैं।
सोये स्वप्न जब बेड़ी तोड़ें, तभी तो जड़ अपने हिलते हैं, कभी जो आप से बात हुई तो जाना मित्र कहाँ मिलते हैं।
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