मैं धरा के जंगलों में ढूंढता मारीच, देखो ! बिछड़े लक्ष्मण और सीता मुझसे किस युग में, न पूछो !
एक उसकी खोज में वर्षों गए हैं बीत मेरे। अब उपासक बन गए हैं उसके ही सब गीत मेरे।
मृग बना था स्वर्ण का वह, किसी युग में ज्ञात मुझको। अब तो अनभिज्ञ सा मैं ढूंढता हर पात उसको।
मन है उसका बंधक कि मोहन में है जीवन बिताये। किन्तु न अस्तित्व उसका किसी भी क्षण में जान पाए।
कौन है वह, क्या है कि वह समक्ष भी है परोक्ष भी है। पाने से उसको ही, अब तो तय हुआ मेरा मोक्ष भी है।
वन गगन और पर्वतों पर, हर दिशा में ढूंढता हूँ। ‘सत्य क्या मारीच की?’ प्रश्न यह ही पूछता हूँ।
थक गया हूँ, चूर हूँ मैं, मोह से मजबूर फिर भी। कर दूँ कैसे अंत मैं मारीच, और इस खोज की भी।
फिर कभी जब देखता हूँ, मैं जो अपने मन के अंदर। पाता हूँ मारीचों के जाने कितने मैं समंदर।
क्या यही अब तथ्य है कि जब तक हैे जीवंत आशा। अंत न होगा मनस में, मारीच की जी है पिपासा।
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